Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--2


देवदास
2


घर पर आकर पार्वती ने देखा कि उसकी मां और देवदास की मां ने सारी कथा सुन ली है। उससे भी सब बाते पूछी गयी। हंसकर, गंभीर होकर उससे जो कुछ कहते बना, उसने कहा। फिर आंचल मे फरूही बांधकर वह जमीदार के एक बगीचे मे घुसी। बगीचा उन लोगो के मकान के पास था और इसी मे एक ओर एक बंसवाड़ी थी। वह जानती थी कि छिपकर तमाखू पीने के लिए देवदास ने इसी बंसवाड़ी के बीच एक स्थान साफ कर रखा है। भागकर छिपने के लिए यही उसका गुप्त स्थान था। भीतर जाकर पार्वती ने देखा कि बांस की झाड़ी के बीच मे देवदास हाथ मे एक छोटा-सा हुक्का लेकर बैठा है और बड़ो की तरह धूम्रपान कर रहा है। मुख बड़ा गंभीर था, उससे यथेष्ट दुर्भावना का चिन्ह प्रकट हो रहा था। वह पार्वती को आयी देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ, किंतु बाहर प्रकट नही किया। तमाखू पीते-पीते कहा ‘आओ।’

पार्वती पास आकर बैठ गयी। आंचल मे जो बंधा हुआ था, उस पर देवदास की दृष्टि तत्क्षण पड़ी।

कुछ भी न पूछकर उसने पहले उसे खोलकर खाना आरंभ करते हुए कहा-‘पत्तो पंडितजी ने क्या किया?’

‘बड़े चाचा से कहा दिया।’

देवदास ने हुंकारी भरकर, आंख तरेरकर कहा-‘बाबूजी से कहा दिया?’

‘हां।’

‘उसके बाद?’

तुमको अब आगे से पाठशाला नही जाने देगे।

‘मै भी पढ़ना नही चाहता।’

इसी समय उसका खाद्य-द्रव्य प्रायः समाप्त हो चला। देवदास ने पार्वती के मुख की ओर देखकर कहा‘सं देश दो।’

‘संदेश तो नही लायी हूं।’

‘पानी कहां पाऊंगी?’

देवदास ने विरक्त होकर कहा-‘कुछ नही है तो आयी क्यो? जाओ, पानी ले आओ।’

उसका रूखा स्वर पार्वती को अच्छा नही लगा। उसने कहा ‘मैन नही जा सकती, तुम जाकर पी आओ।’

‘मै क्या अभी जा सकत हूं?’

‘तब क्या यही रहोगे?’

‘यही पर रहूंगा, फिर कही चला जाऊंगा।’

पार्वती को यह सब सुनकर बड़ा दुख हुआ। देवदास का यह आपत्य वैराग्य देखकर और बातचीत सुनकर उसकी आंखो मे जल भर आया;-कहा मै भी चलूंगी!

‘कहां?’ मेरे साथ? भला यह क्या हो सकता है? पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा-‘चलूंगी’

‘नही, यह नही हो सकता। तुम पहले पानी लाओ।’

पार्वती ने फिर सिर हिलाकर कहा-चलूंगी!

पहले पानी ले आओ।

‘मैन नही जाऊंगी, तुम भाग जाओगे।’

‘नही, भागूंगा नही।’

परंतु पार्वती इस बात पर विश्वास नही कर सकी, इसी से बैठी रही। देवदास ने फिर हुक्म दिया‘जाओ, कहता हूं।’

‘मै नही जा सकती।’

क्रोध से देवदास ने पार्वती का केश खीचकर धमकाया। ‘जाओ, कहता हूं’

पार्वती चुप रही। फिर उसने उसकी पीठ पर एक घूंसा मारकर कहा-‘नही जाओगी’

पार्वती ने रोते-रोते कहा-‘मै किसी तरह नही जा सकती।’

देवदास एक ओर चला गया। पार्वती भी रोते-रोते सीधी देवदास के पिता के सम्मुख आकर खड़ी हो गयी। मुखोपाध्यायजी पार्वती को बहुत ह्रश्वयार करते थे। उन्होने कहा-‘पत्तो, रोती क्यो है।’

‘देवदास ने मारा है।’

‘वह कहां है?’

‘इसी बंसीवाड़ी मे बैठकर तमाखू पी रहे है।’

एक तो पंडितजी के आगमन से वह क्रोधित होकर बैठे थे, अब यह खबर पाकर वे एकदम आग-बबूला हो गये। कहा-‘देवा तमाखू भी पीता है?’

‘हां, पीते है, बहुत दिनो से पीते है। बंसवाड़ी के बीच मे उनका हुक्का छिपाकर रखा हुआ है।’

‘इतने दिन तक मुझसे क्यो नही कहा?’

‘देव दादा मारने को कहते थे।’

वास्तव मे यह बात सत्य नही थी। कह देने से देवदास मार खाता, इसी से उसने यह बात नही कही थी। आज वही बात केवल क्रोध के वशीभूत होकर उसने कहा दी। इस समय उसी वयस केवल आठ वर्ष की थी। क्रोध अभी अधिक था; किंतु इसी से उसकी बुद्धि-विवेचना नितांत अल्प नही थी। घर जाकर वह बिछौने पर लेट गई और बहुत देर तक रोने-धोने के बाद सो गयी। उस रात को उसने खाना भी नही खाया।

दूसरे दिन देवदास ने बड़ी मार खायी। उसे दिन भर घर मे बंद रखा गया। फिर जब उसकी माता बहुत रोने-धोने लगी, तब देवदास को छोड़ दिया गया। दूसरे दिन भोर के समय उसने भागकर पार्वती के घर की खिड़की के नीचे आकर खड़े होकर उसे बुलाया-‘पत्तो, पत्तो!’

पार्वती ने खिड़की खोलकर कहा-‘देव दादा!’

देवदास न इशारे से कहा ‘जल्दी आओ।’

दोनो के एकत्र होने पर देवदास ने कहा ‘तुमने तमाखू पीने की बात क्यो कह दी’

‘तुमने मारा क्यो’

‘तुम पानी लेने क्यो नही गयी?’

पार्वती चुप रही। देवदास ने कहा- ‘तुम बड़ी गदही हो, अब कभी मत कहना।’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘नही कहूंगी’

‘तब चलो, बांस से बंसी काट लाये। आज बांध मे मछली पकड़नी होगी।’

बंसवाड़ी के निकट एक नोना का पेड़ था, देवदास उस पर चढ़ गया। बहुत कष्ट से बांस की एक नाली नवाकर, पार्वती को पकड़ने के लिए देकर कहा-‘देखो, इसे छोड़ना नही, नही तो मै गिर पड़ंगा।’

पार्वती उसे प्राणपण से पकड़े रही। देवदास उसे पकड़कर, नोना की एक डाल पर पांव रखकर बंसी काटने लगा। पार्वती ने नीचे से कहा-‘देव दादा, पाठशाला नही जाओगे?’

‘नही।’

‘बड़े चाचा तुम्हे भेजेगे तब?’

‘बाबू जी ने खुद ही कहा है कि अब मै वहां नही पढ़ूंगा। पंडितजी ही मकान पर आवेगे।’

पार्वती कुछ चिंतित हो उठी। फिर कहा-‘कल से गरमी की वजह से पाठशाला सुबह की हो गयी है,

अब मै जाऊंगी।’

देवदास ने ऊपर से आंख लाल करके कहा-‘नही, यह नही हो सकता।’

इस समय पार्वती थोड़ा अन्यमनस्क-सी हो गई और नोना की डाल ऊपर उठ गयी, साथ-ही-साथ देवदास नोना की डाल से नीचे गिर पड़ा। डाल अधिक ऊंची नही थी, इससे ज्यादा चोट नही आयी, किंतु शरीर के अनेक स्थान छिल गए। नीचे आकर क्रुद्ध देवदास ने एक सूखी कइन लेकर पार्वती की पीठ के ऊपर, गाल के ऊपर और जहां-तहां जोर से मारकर कहा-‘जा, दूर हो जा।’

पहले पार्वती स्वयं ही लज्जित हुई थी, पर जब छड़ी-पर-छड़ी क्रम से पड़ने लगी, तो उसने क्रोध और अभिमान से दोनो आंखें अग्नि की भांति लाल-लाल कर रोते हुए कहा-‘मै अभी बड़े चाचा के पास जाती हूं।’

देवदास ने क्रोधित होकर और एक बार मारकर कहा-‘जा, अभी जाकर कह दे, मेरा कुछ नही होगा।’

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